रामायण काल में आश्रम व्यवस्था

Authors

  • राजेश कुमार असिस्टेंटप्रो. सुषमा नारा

Abstract

प्राचीन काल से लेकर आज तक भारत में अध्यापन पुण्य का कार्य माना गया है।ग्रहस्थ ब्राह्मण के पांच महायज्ञों में ब्रह्मयज्ञ का स्थान सर्वोच्च था।ब्रह्मयज्ञ में विद्यार्थियों को शिक्षा देना प्रधान कर्म था।[3] ब्रह्मयज्ञ के लिए प्रत्येक विद्वान ग्रहस्थ के लिए शिष्यों का होना आवश्यक था। इन्हीं शिष्यों में आचार्य के पुत्र भी होते थे। इस प्रकार प्रत्येक विद्वान ग्रहस्थ का घर विद्यालय था। ऐसे विद्यालयोंका प्रचलन वैदिक काल में विशेष रूप से था।[4] महाभारत में भी ग्रहस्थाश्रम में रहने वाले आचार्यों के अपने घर में अध्यापन करने के उल्लेख मिलते हैं।[5] वैदिक काल में अध्यापन का कार्य धन के अर्जन के लिए नहीं होता था। इस युग में आचार्योंकी समझथीकि जैसे सूर्य का कर्म प्रकाशित करना, नदी का कर्म जल प्रदान करना, भूमिका कर्म खनिज प्रदान कर सभी को पोषित करना है, उसी प्रकार ऋषि स्वभावत: ज्ञान देते है। इस प्रकार आचार्य का व्यक्तित्व गौरवपूर्ण था।

 

Published

2007-2024

How to Cite

राजेश कुमार असिस्टेंटप्रो. सुषमा नारा. (2024). रामायण काल में आश्रम व्यवस्था. International Journal of Economic Perspectives, 15(1), 776–784. Retrieved from https://ijeponline.com/index.php/journal/article/view/818

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